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दे॒वी दे॒वेभि॑र्यज॒ते यज॑त्रै॒रमि॑नती तस्थतुरु॒क्षमा॑णे। ऋ॒ताव॑री अ॒द्रुहा॑ दे॒वपु॑त्रे य॒ज्ञस्य॑ ने॒त्री शु॒चय॑द्भिर॒र्कैः ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

devī devebhir yajate yajatrair aminatī tasthatur ukṣamāṇe | ṛtāvarī adruhā devaputre yajñasya netrī śucayadbhir arkaiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वी इति॑। दे॒वेभिः॑। य॒ज॒ते इति॑। यज॑त्रैः। अमि॑नती॒ इति॑। त॒स्थ॒तुः॒। उ॒क्षमा॑णे॒ इति॑। ऋ॒तव॑री॒ इत्यृ॒तऽव॑री। अ॒द्रुहा॑। दे॒वपु॑त्रे इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे। य॒ज्ञस्य। ने॒त्री इति॑। शु॒चय॑त्ऽभिः। अ॒र्कैः ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:56» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (अर्कैः) सत्कार करने योग्य (शुचयद्भिः) पवित्रता को कहते हुए (यजत्रैः) मिलने योग्य (देवेभिः) श्रेष्ठ गुणों वा विद्वानों से जो (देवी) प्रकाशमान (अमिनती) नहीं हिंसा करनेवाले (ऋतावरी) बहुत सत्य से युक्त (अद्रुहा) नहीं द्रोह करने योग्य (देवपुत्रे) विद्वान् जन पुत्र जिनके वे (यज्ञस्य) संसार के व्यवहार के (नेत्री) चलानेवाले (उक्षमाणे) सब प्राणियों को सुखों से सींचते हुए (यजते) मिलने योग्य सूर्य्य और भूमि (तस्थतुः) स्थित होते हैं, उनको जान के जो व्यवहारों में संयुक्त करता है, वही भाग्यशाली होता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य पृथिवी से लेके प्रकृति अर्थात् प्रधानपर्य्यन्त पदार्थों को उनके गुण, कर्म्म, स्वभाव से यथावत् जान के कार्य्य की सिद्धि के लिये सम्प्रयोग करते हैं, वे सदा ही भाग्यशाली होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! अर्कैः शुचयद्भिर्यजत्रैर्देवेभिर्विद्वद्भिर्ये देवी अमिनती ऋतावरी अद्रुहा देवपुत्रे यज्ञस्य नेत्री उक्षमाणे यजते द्यावापृथिवी तस्थतुर्विज्ञायैते यो यजते स एव भाग्यशाली जायते ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (देवी) देदीप्यमाने (देवेभिः) दिव्यैर्गुणैर्विद्वद्भिर्वा (यजते) सङ्गन्तव्ये (यजत्रैः) सङ्गन्तव्यैः (अमिनती) अहिंसके (तस्थतुः) तिष्ठतः (उक्षमाणे) सर्वान् प्राणिनः सुखैः सिञ्चमाने (ऋतावरी) बह्वृतं सत्यं विद्यते ययोस्ते (अद्रुहा) अद्रोग्धव्ये (देवपुत्रे) देवा विद्वांसः पुत्रा ययोस्ते (यज्ञस्य) संसारव्यवहारस्य (नेत्री) नयनकर्त्र्यौ (शुचयद्भिः) शुचिमाचक्षाणैः (अर्कैः) सत्कर्त्तव्यैः ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या पृथिवीमारभ्य प्रकृतिपर्यन्तान् पदार्थान् यथावद् विज्ञाय कार्यसिद्धये सम्प्रयुञ्जते ते सदैव भाग्यशालिनो भवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे पृथ्वीपासून प्रकृतीपर्यंत पदार्थांना कार्यसिद्धीसाठी यथायोग्य सम्प्रयोजित करतात ती सदैव भाग्यवान असतात. ॥ २ ॥